Thursday, November 13, 2014

दादाजी और उनकी घोड़ी



मेरे दादाजी के पांच बेटे और एक बेटी हुई. बेटी सबसे छोटी थी अतः मेरे दादा और दादी उनको बहुत प्यार करते थे. दादा-दादी ही नहीं बल्कि पांचों भाई उन्हें बहुत प्यार करते थे. बड़े दादा जी यानी मेरे दादाजी के बड़े भाई को पांच संतानें हुईं. तीन भाई और दो बहनें. संयुक्त परिवार था. ज़मीन बहुत थी,  संपन्न परिवार था और बड़ा काश्तकार होने के कारण गाँव में सम्मान भी था. अतः दादाजी बड़ी ठसक के साथ रहते थे. उनको विभिन्न स्थानों पर घूमने का बड़ा शौक था. यही वजह थी कि दादाजी खेती के काम की देखभाल प्रायः अपने बड़े भाई और कामगारों के हवाले सौंपकर स्वयं कहीं न कहीं यात्रा पर निकल जाते. उन दिनों आज की तरह आने-जाने के साधन तो थे नहीं. अतः साधन संपन्न घरों में लोगों के पास अपने स्वयं के साधन होते थे. आने-जाने के लिए मेरे घर पर एक रथ था, एक रब्बा था और एक बाईस्कल थी. मेरे दादा जी के पास भी एक बड़ी ही खूबसूरत घोड़ी थी. वे हमेशा घोड़ी पर बैठकर ही कहीं जाया करते. यहाँ तक कि खेतों को देखने के लिए भी अपनी उसी सवारी का उपयोग किया करते. मेरे मन में आज भी घोड़ी पर बैठे हुए अपने दादा जी की वह छवि अंकित है. सफ़ेद कुर्ता-धोती और सर पर गाँधी टोपी पहने हुए वे बहुत ही सुदर लगते थे. कद उनका बहुत लम्बा नहीं था और शरीर भी भरा हुआ था पर उन्हें मोटा बिलकुल नहीं कहा जा सकता था. उनकी भरी-भरी मूंछें थीं जो उनके चहरे पर बिलकुल फिट बैठतीं थीं. मेरे दादा बहुत नेकदिल इंसान थे और सदैव दूसरों की मदद करने वाले. इसी का परिणाम है कि आज भी गाँव के आस-पास के बुजुर्ग लोग मुझे पिताजी के नाम से नहीं बल्कि दादाजी के साथ जोड़कर पहचानते हैं. दो भाइयों में बंटवारा हो जाने के बावजूद मेरे दादाजी के हिस्से में बहुत ज़मीन आई. वे अकेले थे अतः सोचते थे कि उनके पांचो बेटे खेती का काम ही देखेंगे. शायद इसीलिए उन्होंने केवल सबसे बड़े बेटे को ही स्कूल भेजा और बाकी अन्य चारों को पढने स्कूल नहीं भेजा.

Sunday, October 20, 2013

स्त्री-विमर्श कल, आज और कल

लोहिया कालेज, चुरू, राजस्थान मे स्त्री-विमर्श कल, आज और कल विषय पर आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी का अनुभव बहुत प्यारा और उत्साहवर्धक रहा। प्यारा इसलिए कि जिस तरह से सेमिनार के आयोजकों ने पूरी व्यवस्था की थी वह निसंदेह अपने आप में सम्पूर्ण थी। संगोष्ठी का आयोजन स्थल और बाहर से आए अतिथि विशेषज्ञों के आवास तथा भोजन आदि की समुचित व्यवस्था थी। आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न होटल में ठहराने के साथ-साथ आयोजकों ने जिस तरह परंपरागत राजस्थानी शैली के भोजन की व्यवस्था की थी वह अवश्य ही सराहनीय था। वैसे तो किसी प्रकार की कोई असुविधा संगोष्ठी के प्रबन्धकों ने होने नहीं दी लेकिन यदि किंचित भी किसी को कुछ लगता तो डॉ उम्मेद सिंह, डॉ मंजु शर्मा और श्री दुलारम सहारन जी के साथ साथ उम्मेद जी के अन्य सभी सहयोगी प्राध्यापक तथा छात्र मदद को हर क्षण तैयार रहते। किसी भी समस्या के लिए का स्वाद देखते ही बनाता था। जहां तक उत्साहवर्धन की बात है तो दिल्ली से इतनी दूर स्त्री-विमर्श जैसे मुद्दे पर अनेक विद्वान वक्ता और प्रतिभागियों के साथ-साथ पत्रकार, कार्यकर्ता और समाजसेवी सगठनों के प्रतिनिधि वहाँ पहुंचे यह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। अनेक विदुषी रचनाकारों और विद्वान आलोचकों से दिल्ली से बाहर चुरू में भेंट हुई। संगोष्ठी के दौरान और उससे बाहर भी प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल, डॉ. नन्द भारद्वाज, प्रो. रामबक्ष, सुश्री मैत्रेयी पुष्पा, सुश्री मृदुला गर्ग, प्रो रोहिणी अग्रवाल, डॉ. अजय नावरिया, डा. सुमन केसरी, डॉ. अल्पना मिश्रा, डॉ. गंगा सहाय मीणा, श्री दुलाराम सहारन, सुश्री मनीषा पांडे, डॉ एम. दी. गोरा, डॉ उम्मेद गोठवाल, डॉ. मंजु शर्मा, डॉ अंजु ओझा, डॉ गीता सामोर, डॉ रणजीत बुडानिया आदि के साथ बातचीत भूत सार्थक रही। संगोष्ठी का अनुशाशन, सत्तरों की व्यवस्था में समय का परिपालन, मीडिया प्रबंधन, अतिथियों और प्रतिभागियों की देख-भाल, खान-पान और सम्मान की दृष्टि से आयोजक साधुवाद के अधिकारी है। उन्हें इस सफल आयोजन के लिए बहुत-बहुत बधाई,  

Sunday, September 22, 2013

विद्वान

विद्वान बहुत धीरे-धीरे बोलते हैं। वे इतना धीमा बोलते हैं कि कभी-कभी यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि वे क्या कहना चाहते हैं? विद्वान कम बोलते हैं। वे एक-एक शब्द सोचकर बोलते है। यहां तक कि वे शब्दों को बोलने के बीच में भी सोचते हैं। उन्हें देखकर लग सकता है, बल्कि लगता है कि सोचना कितना ज़रूरी है विद्वान होने के लिए। विद्वान किताबों के साथ बैठना पसंद करते हैं। बल्कि किताबों के बीच बैठे होते है। आजकल तो वे किताबों पर बैठे रहते हैं। ऐसी स्थिति में वे बहुत अच्छे बल्कि और अधिक अच्छे लगते हैं। किताबें उनको बहुत सहारा देती हैं। कभी-कभी विद्वान भी पुस्तकों को सहारा देते हैं विशेषकर तब जब पुस्तकें कुछ कमज़ोर हों। ऐसी स्थिति में विद्वान थोड़ा मुस्कराते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वे मुस्कराते नहीं बल्कि इस तरह हसते हैं। शिष्यों का तो यहां तक कहना है कि उनकी वास्तविक हंसी यही है। उस समय हम भी विद्वत जन की हंसी देखकर लाभांन्वित हो सकते हैं।

Monday, September 16, 2013

Bore

जेएनयू में एक ज़माने में कुछ शब्दों का बहुत प्रचलन था. मसलन चाट, चिपकू, गोंद और फेवीकोल आदि आदि. काशीराम के ढाबे पर चाय पीने बैठे होते तो किसी प्रतिभाशाली चाट को आते देखकर जल्दी उठ जाते ये कहते हुए कि भाग लो चाट आ रहा है. कोई विद्यार्थी कुछ अटपटी बात कहता तो किसी की टिप्पणी होती कि क्या चाट जैसी बाते का रहे हैं. फलां के साथ बहुत रहते हैं आजकल क्या?? और भी कुछ इसी प्रकार की टिप्पणियां. वास्तव में जब आप किसी से बात न करना चाहें और किसी कार्य में बहुत व्यस्त हैं तो मित्र की मौजूदगी भी अप्रिय लगने लगती है. पर ये एक अलग प्रसंग हो सकता है. यहाँ बात परमानेंट चाटों के बारे में है. जेएनयू के ही एक मित्र ने उस समय हद ही कर दी जब मजाक में ही सही उसने परेशान होकर चाटों की भी सैधांतिक व्याख्या कर डाली. उसका कहना था कि चाटवाद के अनुसार चाट तीन प्रकार के होते हैं. एक ऐसे लोग जिनसे बात करके आप चट जाएँ और थोड़े समय के लिए सही काम करने के लायक न रह जाएँ. ऐसे लोगों से थोड़ी सी सावधानी बरत कर आप बच सकते हैं. ये सामान्य कोटि के चाट कहे जा सकते हैं. दूसरी श्रेणी ऐसे लोगों की बनती है जिनके बारे में आपस में बात करके आप चट जाएँ यानी कि बोर हो जाये, ऊब जाये और पूरे दिन काम न कर पायें. ऐसे चाटों से बचने के लिए अतिरिक्त सावधानी की आवश्यकता होती है. तीसरी श्रेणी और भी भयानक लोगों की है. इस सम्बन्ध में दर्शन शास्त्र बहुत सावधान रहने की हिदायत देता है. वास्तव में चाटों का ये ऐसा वर्ग है जिनके स्मरण मात्र से ही आप चाट जाएँ यानी कि इतने बोर हो जाएँ कि बस हो गया आपका उस दिन का काम. यानी कि इस कोटि के लोगों की याद आना ही काफी है आपकी बोरियत में वृद्धि करने के लिए. इस बात के लिए कि आप चट गए. इस सदमे से उबरने में समय लगता है.’ आजकल फेसबुक पर भी कुछ ऐसी ही सावधानी बरतने की दरकार है. नहीं तो तीसरी कोटि के महान कलाकार आपको अपना अहसास कराने में देर नहीं करेंगे.

JNU

जेएनयू में सतलज हास्टिल के सामने बने शापिंग सेंटर में पुस्तकों की एक दुकान थी, गीता बुक सेंटर। उसके मालिक एक बंगाली थे जिनको सब लोग दादा कहकर पुकारते थे। बंगाली दादा बहुत ही शानदार व्यक्ति थे। मिलनसार। अपने खरीदार की मन: स्थिति को भी वे अच्छी तरह समझते थे।। जिन छात्रों को फेलोशिप मिलती थी उन पर दादा का विशेष प्रेम होता। मैं भी उनमें से एक था। यही कारण था कि जब भी कोई नयी महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित होकर आती वे उसे हम लोगों को इस प्रकार बेरुखी से दिखलाते कि हमारी जिज्ञासा उस पुस्तक में और भी अधिक बढ़ जाती। जब पुस्तक विशेष के बारे में अधिक विस्तार से पूछा जाता तो वे समझ जाते कि छात्र की रुचि बढ, रही है। आश्वस्त होने पर वे पुस्तक के बारे में बताकर कहते कि 'एक ही प्रति है दे नहीं सकता।' बहुत आग्रह करने पर दादा कहते कि 'नामवर सिंह जी के लिए लाया हूं, आपके लिए कल ला दूंगा।' फिर कहते कि 'अच्छा ये पुस्तक आप ले लीजिए, नामवर जी के लिए कल दूसरी ला दूंगा।' मनपसंद पुस्तक और वह भी नामवर जी के लिए संभाल कर रखी हुई पुस्तक खरीदकर हम प्रमुदित होकर अपने कमरे में लैटते। लेकिन हमारे जाते ही दादा रैक के पीछे रखी किताबों में से दूसरी प्रति निकाल कर दूसरी जगह रख देते।और किसी अन्य छात्र से नयी किताब की चर्चा करने में व्यस्त हो जाते। यही स्थिति कमोबेश अन्य विभागों के विद्यार्थियों की भी थी। लेकिन दादा की इस सेल्समैनशिप की धीरे-धीरे आदत सी पड़ गयी। आज पुरानी उन यादों के बारे में सोचकर बहुत अच्छा लगता है।

Nazeer

नजीर अकबराबादी ने हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओँ में लिखा है. उन्होंने "कृष्णलीला संबंधी बहुत से पद्य खड़ी बोली हिंदी में लिखे". इन पद्यों का उल्लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक 'हिंदी साहित्य का इतिहास' किया है. वे नजीर को एक 'मनमौजी सूफी भक्त' कहते है. आज कृष्ण-जन्माष्टमी है. कई साथियों ने नजीर अकबराबादी की कुछ नज्में उद्धृत की है. नजीर अकबराबादी की एक बेहद खूबसूरत नज़्म याद आई. मूल तो मुझे मिली नहीं, उनकी जो नज़्म शुक्ल जी ने उद्धृत की है, वह यहाँ प्रस्तुत है.
यारो सुनी य दधि के लुटैया का बालपन.
औ मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन.
मोहन स्वरुप नृत्य करैया का बालपन.
बन-बन में ग्वाल गौवें चरैया का बालपन.
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन.
परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे.
जोती सरूप कहिये जिन्हें सो वो आप थे.
- नजीर अकबराबादी

Primary Teacher

प्राइमरी स्कूल की पहली कक्षा में जिस अध्यापक ने मुझे पहले दिन अौपचारिक रूप से पढ़ाया उनका नाम था दौलत राम। दौलतराम के नाम में ही दौलत थी वरना दौलत से दूर-दूर तक उनका कोई लेना-देना नहीं था। मेरे पिताजी प्राय: उनके घर भुट्टे और सर्दियों में गन्ने तथा गुड़ आदि भिजवाते। मेरा बाल मन सोचता कि जब हम फीस देते हैं तो पिताजी सामान क्यों भिजवाते है? बाद में मैंने जाना कि उनके पास ज़मीन नहीं थी। वे पड़ौस के ही गांव से आते थे और समय के इतने पाबंद कि मुझे तो गुस्सा तक आ जाता कि रोज क्यों आते हैं, कभी बीमार भी नहीं होते, आदि-आदि । वे पढ़ाने के मामले में बहुत सख़्त थे तथा गलतियों के लिए बहुत डांटते थे। मुझे उनसे बहुत डर लगता था। जब दूसरे बच्चों की किसी बात पर पिटाई होती तो मैं और भी डरने लगता। शायद इस डर का भी परिणाम रहा होगा कि मैंने अपने पढ़ाई के काम में कभी कोई कमी नहीं रहने दी। परिणामत: पिटाई की बात तो दूर कभी डांट भी नहीं पड़ी। यह सचमुच उसी मज़बूत फाउंडेशन का ही परिणाम है। ऐसे अपने ज्ञानदाता गुरू के प्रति नमन।